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आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद सरस्वती की जीवनी

Written by-VicharKranti Editorial Team

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19वीं सदी का भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों से जकरा हुआ था । इन सारे सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए समूचे भारतवर्ष में कई सारे समाज सुधारकों ने समाज सुधार की दिशा में उत्कृष्ट कार्य किए , जिनके परिणामस्वरूप आज हम भारतीय एक भारत और श्रेष्ठ भारत की कल्पना को साकार कर कर रहें हैं । उन्हीं समाज सुधारकों में अग्रणी हैं – आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद स्वरस्वती (swami dayanand saraswati hindi) !

इस आर्टिकल में हम स्वामी जी के व्यक्तिव और उनके कृतित्व की संक्षिप्त जानकारी आपको देने जा रहें हैं । हम अपने प्रयास में कितने सफल हुए इसे कमेन्ट बॉक्स में जरूर लिखें ।

स्वामी दयानंद स्वरस्वती का जीवन परिचय-Bio of Swami Dayanand Saraswati Hindi

स्वामी दयानंद स्वरस्वती का जन्म 12 फ़रवरी 1824 को वर्तमान गुजरात के मोरबी जिलान्तर्गत टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राहमण परिवार में हुआ था । स्वामी जी के पिता अपने क्षेत्र के एक धनी और प्रभावशाली व्यक्ति थे । स्वामी जी के बचपन का नाम मूल शंकर था । वे सत्य की तलाश में लगभग 15 बर्ष तक इधर-उधर भटकते रहे ।

स्वामी दयानंद का संक्षिप्त परिचय

नाम मूल शंकर
जन्म 12 फ़रवरी 1824
मृत्यु30 अक्टूबर 1883
पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी
माता जी का नाम यशोदाबाई

स्वामी दयानंद बचपन से ही बहुत तार्किक और विचारवान व्यक्ति थे । उनके बचपन की एक कहानी है – जिससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि वह बचपन से ही किस तरह सोचते थे ।

एक बार की बात है जब वह छोटे बालक थे, घर के सारे लोग शिवरात्रि पर भगवान शंकर की पूजा अर्चना के लिए मंदिर गए हुए थे । उनके पिता ने भगवान को प्रसाद अर्पित की और स्वामी जी से कहा रात में भगवान शंकर आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे । स्वामी जी भगवान को देखने के लिए रात भर जागते रहे , इसी दरम्यान उन्होंने देखा कि एक चूहा आकर सारा प्रसाद खा गया । इस बात को लेकर स्वामी जी ने अगली सुबह अपने पिता से काफी बहस की और कहा ये हम कैसी भगवान की पूजा कर रहे है ? जो अपने प्रसाद की भी रक्षा नहीं कर सकते है !

क्या भगवान इतना असहाय हो सकते हैं कि वह अपने प्रसाद तक की भी रक्षा नहीं कर पाए ??? इस बात को लेकर उनके और उनके पिताजी में काफी बहस हुई ।

इसके कुछ दिनों बाद ही उनके चाचा और उनकी बहन का हैजे की वजह से मृत्यु हो गई । इससे उन्हें और आघात लगा और वो जीवन मरण के प्रश्नों को अधिक गहराई में सोचने को विवश हुए । माता-पिता ने जैसे ही विवाह का निर्णय किया उन्होंने सन 1846 में गृह त्याग कर दिया ।

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शुरुआती शिक्षा दीक्षा

स्वामी दयानंद ने अपनी वेदांत की शिक्षाा मथुरा में गुरु स्वामी विरजानंद से ग्रहण की थी । स्वामी विराजनन्द से उन्होंने व्याकरण , योग और वेद वेदान्त का ज्ञान प्राप्त किया । शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वामी दयानंद के विचार बदल गए, और उन्होंने वेदों को सर्वश्रेष्ठ बताया ।

उनके अनुसार व्यक्तिगत रूप से धार्मिकता का मार्ग सभी को अपनाना चाहिए क्योंकि हर मनुष्य को ईश्वर की उपासना का अधिकार है । उन्होंने इस्लाम और इसाइयत सहित कुछ प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ में पुराण की कड़ी आलोचना की और कहा कि स्वार्थी पंडितो और पुरोहितों ने पुराणों की मदद से हिन्दू धर्म को बुरी तरह दूषित कर दिया है ।

उन्होंने रूढ़िवादिता, जातिगत कठोरता , मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड जैसी चीजों की कड़ी आलोचना की । उन्होंने जातिप्रथा की भी आलोचना की । उनका मत था कि जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर होनी चाहिए । उन्होंने अपने जीवनपर्यंत कई सारे शास्त्रार्थ किए और शुद्धि के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किया ।

आर्यसमाज की स्थापना

स्वामी दयानंद सरस्वती एक प्रखर राष्ट्रवादी संत थे । उन्होंने अपने विचारों से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नयी दिशा दी । वे धार्मिक आध्यात्मिक और राजनैतिक चिंतन में युगनूकूल परिवर्तन के समर्थक थे । उन्होंने भारतवर्ष की मुक्ति के लिए सम्पूर्ण हिन्दू समाज के एकीकरण और वैचारिक कायाकल्प करने को अपना ध्येय बनाया । अपने इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने 10 अप्रैल 1875 को महाराष्ट्र के गिरगांव में आर्यसमाज की स्थापना की । हालंकि बाद में उन्होंने इसका मुख्यालय मुंबई से लाहौर स्थांतरित कर दिया ।

अब हम बात करेंगे स्वामी दयानंद सरस्वती जी द्वारा स्थापित आर्य समाज और आर्य समाज के कुछ प्रमुख सिद्धांत के बारे में ।

आर्य समाज के 10 प्रमुख सिद्धांत

आर्यसमाज के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित है ।

1.वेद ही ज्ञान का श्रोत है

स्वामी जी का यह स्पष्ट मानना था कि अगर हमें वास्तव में ज्ञान अर्जित करना है ,तो हमें वेद का अध्यन करना ही होगा । बिना वेद के हम ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते है।

2. वेद के आधार पर मंत्र पाठ करना

उनका मानना था कि हम जिस किसी भी मंत्र का पाठ करें वह वेद के आधार पर वेद सम्मत ही होने चाहिए ।

3. मूर्ति पूजा का खंडन
स्वामी दयानन्द सरस्वती मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते थे क्योंकि उनका मानना था कि ईश्वर का कोई आकर नहीं होता है । वे निराकार ब्रह्म के उपासक थे ।

4. तीर्थयात्रा और अवतारवाद का विरोध
उनका कहना था कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं और सर्वत्र हैं तो फिर हम उन्हें खोजने इतना दूर क्यों जाना ? अर्थात उन्होंने तीर्थ यात्रा की भी आलोचना की।

5. कर्म के आधार पर आत्मा के जन्म लेने पर विश्वास
उनका मानना था कि हमें अगला जन्म अपने कर्म के आधार पर ही मिलता है । इसीलिए हम जैसा कर्म करेंगे वैसे ही हमें अगला जन्म मिलेगा ।

6. एक ईश्वर में विश्वास
उनका मानना था कि ईश्वर एक ही है , जो निरंकारी है अर्थात ईश्वर का कोई आकर नहीं होता है ।

7. स्त्री के शिक्षा की वकालत
उनका मानना था कि स्त्रीशिक्षा के बिना समाज में पूर्ण तरीके से संतुलन नहीं हो सकता है । वो एक संतुलित और सुखी समाज के लिए स्त्री शिक्षा को अहम मानते थे ,इसीलिए उन्होंने स्त्री शिक्षा की जमकर वकालत की ।

8. बाल विवाह और बहुविवाह का विरोध

9. कुछ विशेष परिस्थिति में विधवा विवाह का समर्थन

10. हिंदी और संस्कृत भाषा के प्रसार को प्रतोसहन


उन्होंने हिंदी और संस्कृत भाषा के अधिक से अधिक प्रचार प्रसार पर जोड़ दिया । उनका मानना था कि अगर कोई भाषा देश को जोड़ सकती है तो वह हिंदी और संस्कृत ही है ।

आर्य समाज के सामाजिक उद्देश्य

आर्य समाज ने अनेक सामाजिक कार्य किए । आर्य समाज ने लड़की के विवाह की उम्र 16 वर्ष और लड़के के विवाह की उम्र 25 वर्ष तय की ।
एक अवसर पर दयानंद सरस्वती ने हिन्दू प्रजाति के बच्चों को बच्चा की संज्ञा दी और यही कारण है , कि उन्होंने अंतर्जातीय विवाह और और विधवा विवाह का भी खुला समर्थन किया ।

उन्होंने महिला समानता की भी वाकलत की । आर्य समाज ने शिक्षा को भी एक नई दिशा प्रदान की । आर्य समाज ने लोगों का ध्यान परलोक की बजाय इस वास्तविक संसार में रहने वाले मनुष्य की समस्या की ओर दिलाया । उनका मानना था कि मानव की सेवा ही सच्चे अर्थों में वास्तविक धर्म है ।

उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया जिससे की किसी भय से दूसरे धर्म में जा चुके लोगों को वापस हिन्दू धर्म में लाया जा सकें । स्वामी दयानंद के विचार और चिंतन का प्रकाशन उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में हुआ है ।

उनकी परिकल्पनाओं में जाति और वर्ग विहीन समाज की स्थापना ,भारत माता की अंग्रेजी दासता से मुक्ति और समूचे भारतवर्ष में आर्य वैदिक धर्म की स्थापना की परिकल्पना प्रमुख थी ।

उन्होंने वेदों के ज्ञान को सत्य और वेदों को धर्म की कसौटी कहा । स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ही नारा दिया था आओ वेदों की ओर लौट चले । 30 अक्टूबर 1883 ईसवी में स्वामी दयानंद सरस्वती भले ही इस दुनिया को छोड़ कर चले गए , लेकिन उनका किया गया कार्य आने वाले कई वर्षों तक जीवित रह कर मानवता का पथ आलोकित करता रहेगा ।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना सारा जीवन मानव की सेवा में ही अर्पित कर दिया , जिसकी वजह से उनका नाम इतिहास में आने वाले कई वर्षों तक स्वर्णिम अक्षरों में लिया जाएगा । स्वामी दयानंद के जाने के बाद आर्य समाज को आगे बढ़ाने का काम लाला हंसराज , पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानंद जैसे महापुरुषों ने आगे बढाया ।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख क्रांतिकारी वीर आर्य समाज से सम्बद्ध थे – जिनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं – श्याम जी कृष्ण वर्मा , राम प्रसाद बिस्मिल ,गोपाल कृष्ण गोखले,भाई परमानन्द, सेनापति बापट,लाला लाजपत राय, मदनलाल ढींगरा, विनायक दामोदर सावरकर सहित अन्य ।

हमें पूरा विश्वास है कि स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन परिचय को लिखने का हमारा यह प्रयास लेख(swami dayanand saraswati in hindi) आपको पसंद आया होगा ,त्रुटि अथवा किसी भी अन्य प्रकार की टिप्पणियां नीचे कमेंट बॉक्स में सादर आमंत्रित हैं …लिख कर जरूर भेजें ! इस लेख को अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल्स पर शेयर भी करे क्योंकि Sharing is Caring !

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