प्रयागदास जी नाम के बहुत बड़े महात्मा हुए हैं यह कथा प्रसंग उन्हीं से जुड़ा हुआ है । एक बार बालक प्रयाग दास अपने गांव में गांव के बच्चों के साथ खेल रहे थे। रक्षाबंधन का दिन था तभी एक बच्चे की बहन आई उसने अपने भाई को बुलाया और तिलक लगाया, मिठाई खिलाई उसको राखी बाँधी और कहा अब खेलो ।
बालक प्रयाग दास विचारा से देखते रहे।
तभी बच्चों ने कहा जैसा कि बच्चों की मनोवृत्ति होती है- तेरी तो बहन है नहीं है ना। मेरी बहन है। थोड़ा उदास होकर प्रयागदास माँ के पास गए। बहुत रोने लगे कि हमारी बहन क्यों नहीं है।
अगर बहन होती तो मुझे भी राखी बांधती ना। माँ भक्त थी भगवान की … उन्होंने बेटे से कहा -” बेटा किसने कहा तुम्हारी बहन नहीं। बोले तुम्हारी बहन जानकीजी हैं ।”
बाल प्रयाग दास जी पूछने लगे- तो कहां है मेरी बहन ?
मां ने बच्चों का मन बदलने के लिए कहा- तुम्हारे जीजा बहुत बड़े चक्रवर्ती राजा हैं । चक्रवर्ती सम्राट भगवान राम और तुम्हारी दीदी सीताजी बालक प्रयागदास प्रसन्न हो गया। बच्चों को जो चाहिए अगर वह मिल गया तो बच्चे प्रसन्न हो जायेंगे।
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अब प्रयागदास जिद करने लगे कि मुझे अपनी जीजी के पास जाना है ।
मां समझाने लगी ऐसा थोड़ी जाते हैं जब तुम बड़े हो जाओगे तो मैं तुम्हें कुछ बना कर दूंगी कुछ सामान बनाकर के फिर तुम वहां जाना, लेकिन एक दिन प्रयागदास चुपके से घर से भाग चले अपने जीजी श्री जानकी जी से मिलने के लिए!
साधुओं की टोली जा रही थी उसके साथ हो लिए साधुओं ने अयोध्या पहुंचा दिया ।
अयोध्या में लोगों से पूछने लगे -” कि हमारी दीदी का घर कौन सा है?”
जब लोग पूछे कि तुम्हारी जीजी का नाम क्या है? तो बोलते – जीजा राजाराम और जीजी का जानकी नाम है । अब लोग उनको क्या समझाते, बालक समझ कर किसी ने उनको भगवान राम जी का जो कनक भवन है ठाकुर जी का उसका रास्ता दिखा दिया।
कनक भवन गए तो वह मंदिर! उन्होंने कहा नहीं मंदिर नहीं हमारे जीजा, जी हमारी जीजी, हमारी बहन जानकी जी का घर…
एकदम छोटा सा बच्चा जिसे ढूंढने गया वह नहीं मिला, तो परेशान हो उठा । अयोध्या में सरयू नदी के किनारे गए और वहां जाकर रोने लगे।
जानकी जी का नाम लेकर कहने लगे-” जीजी, मां ने कहा था कि तुम यहीं अयोध्या में ब्याही हो और राम जी हमारे जीजा हैं। अब हम किससे पूछते? सबसे पूछे … कोई आपसे मिलाता नहीं !
भाव में डूब कर रोने लगे ।
उसी समय देखा कि जय हो, जय हो… भगवान श्रीराम की जय। श्रीराम ..! हमारे जीजा का तो नाम , पीछे मुड़कर देखें तो विशाल गजराज पर विराजमान भगवान और लक्ष्मण शत्रुघन ऐसे हनुमान जी शांत और जानकी जी दोनों उस गजराज सिंहासन पर विराजमान।
सीढ़ियां रखी गई। नीचे उतरे। यह दिव्य अलौकिक रूप .. उसके सामने लीला प्रगट हुई।
जानकीजी आ गई राखी लिए हुए हाथों में,मीठा खोवाया, राखी बांधा, गले से लगाया।
जीजी तुम आ गई? -” हां भैया, तुम छोटे थे, इसलिए तुम हमें नहीं जानते थे। मां हमें जानती हैं और भगवान उनको दिव्य महल में ले गए।
भाव के वशीभूत होकर परमात्मा ने स्वयं दिव्य दर्शन दिया । और एक बार दिव्य दर्शन होने के बाद विरक्त हो गए …
उन्होंने कोई तपस्या नहीं की लेकिन भाव के वशीभूत होकर भगवान से उनका साक्षात्कार हुआ । ठीक इसी तरह ध्रुव जी को हुआ था
जो खुद को तर्कपूर्ण और चतुर मानते हैं बुद्धि उनको दौड़ाती जाती है इधर-उधर यहां वहां हर तरफ और सीधे सरल भोले भाव से प्रह्लाद ने कह दिया कि भगवान खंबे में भी हैं तो भगवान को खंभे से प्रकट होना पड़ा ।
तो भगवान को भाव प्रिय है … शुद्ध अंतःकरण और भाव से अगर प्रभु की शरण में हो तो चिंता करने की जरूरत नहीं है तुम अपने कर्म करने पर ध्यान केंद्रित करो जगतपति स्वयं तुम्हारी चिंता करेंगे ।