कीर्ति कानन (दंडक वन) के उत्तर पूर्वी हिस्से में गुरु श्रीभद्र का आश्रम था। यह आश्रम उस क्षेत्र में ज्ञानार्जन का एक मुख्य केंद्र था जहां विभिन्न राज्यों से लोग शिक्षा प्राप्त करने आते थे।
गुरु श्री भद्र के इसी आश्रम में क्रांति ग्राम से भी तीन शिष्य पढ़ते थे जिन्हें गुरु ने काफी अनुनय विनय के पश्चात अपने यहां पढ़ने की अनुमति दी थी ।
जब शिक्षा समापन का समय आया तो गुरु ने उनकी परीक्षा ली तथा उन तीनों को थोड़े-थोड़े चने देकर विदा किया और पुनः साल भर बाद आकर भेंट करने को कहा ।
पहले शिष्य ने चने को बड़े जतन से संभालकर जैसे का तैसा संजोकर रख दिया ताकि गुरु जी की भेंट को संजोकर एक यादगार स्मृति के रूप में रख सके ।
दूसरे शिष्य ने गुरु की कृपा का प्रसाद समझकर चने की दाल बनाई और दाल को अपने परिवार के सभी सदस्यों सहित अनुग्रह पूर्वक ग्रहण किया
तीसरे ने चने के खेत में बो दिया । थोड़े ही दिनों में खेत में चने की फसल लहलहा उठी । वे चने जिसे उसने खेत में बोए थे कई गुणा होकर उसके पास आ गए । उस शिष्य ने एकाध बोरी चने अपने परिजनों और दोस्तों को भी दाल के लिए मुफ्त में दिए और खुद भी अनुग्रहित होकर उसका आनंद लिया । साल भर बाद जब गुरु से मिलने पहुंचा तो एक छोटे से झोले में उनके लिए भी थोड़े चने रख लिए ।
जब तीनों शिष्य पुनः गुरु से मिले तो प्रेम पूर्वक मिलन एवं भोजन आदि की समाप्ति पर गुरु ने शिष्यों से पूछा कि मैंने आप लोगों को चने दिए थे , आपने उसका क्या किया ?
शिष्यों ने क्रमशः अपने बारे में बताया
पहले शिष्य ने कहा कि गुरुदेव मैंने उसे आप की स्मृति में अपने पास संजो कर रखा है। दूसरे ने कहा गुरुदेव मैंने उसे आपकी कृपा का प्रसाद समझकर उन चनों से दाल बनाई और अपने परिवारजनों सहित अनुग्रह पूर्वक उसे ग्रहण किया।
तीसरे शिष्य ने भी अपनी बात सुनाई – ” कि गुरुदेव आपने जो चने दिए थे, उससे मैंने खेत में बो दिया ; और वह चने कई गुना होकर हमारे पास आए । मैंने उसमें से थोड़े अपने परिजनों और दोस्तों को दिया इस झोली में थोड़े चने आपके लिए भी लेकर आया हूँ गुरुदेव ! ”
अंत में गुरु श्री भद्र ने कहा – मैंने आप तीनों को एक जैसी शिक्षा दी थी परंतु अपने विवेक से आपने उपहार का उपयोग किया । ज्ञान भी ठीक ऐसा ही है अगर ज्ञान को विवेक के संग / विवेकपूर्वक उपयोग किया जाए तो ही इससे जगत का कल्याण होता है ।
सीख:-
ज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग ही विश्व कल्याण का आधार बन सकता है । अविवेकपूर्ण एवं स्वार्थ से भर कर किए जाने वाले ज्ञान के उपयोग से कभी भी जगत का कल्याण नहीं हो सकता है । अतः आज से ही आप भी अपनी बुद्धि का उपयोग अपने विवेक से सही कार्यों के लिए करिए ।