किसी गाँव में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे । गाँव में बड़ी ही कठिनाई से उनका जीवन बसर हो पाता था । एक दिन दोनों मित्रों ने आपस में बातचीत करते हुए निर्णय लिया कि उनका जीवन यहाँ बहुत मुश्किल हो रहा है इसलिए वे दोनों नगर जाकर धन अर्जित करेंगे । जिससे उनका और उन पर आश्रित परिवार जनों का जीवन-यापन सही से हो सके ।
दोनों निकाल पड़े शहर की ओर । नगर में विभिन्न स्थानों पर कठोर परिश्रम करके दोनों ने पर्याप्त धन कमाया । कुछ साल बीत जाने के बाद पापबुद्धि ने धर्म बुद्धि से कहा – “मित्र मुझे अपने गाँव की बहुत याद आ रही है । हमने धन भी काफी कमा लिया ,अब हमें अपने गाँव चलना चाहिए । “
धर्मबुद्धि भी अपने मित्र की बात मान गया । दोनों अपने गाँव की ओर चल पड़े । जब वे अपने गाँव के नजदीक पहुंचे तो पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा – “मित्र हम अपने गाँव के करीब आ गए हैं । हमने बहुत परिश्रम करके इतना धन कमाया है । इसलिए हमें इस पूरे धन को लेकर अपने गाँव अपने घर तक नहीं जाना चाहिए ।
यदि इस पूरे धन को अपने साथ लेकर हम अपने गाँव तक जाएंगे तो हमारे दोस्त मित्र , हमारे नाते रिश्तेदार हम से इस धन को किसी न किसी तरह से बाँट लेंगे। क्यों नहीं हम इस धन को इधर ही इस वन में गाड़ दे और फिर अपने जरूरत के अनुसार हम समय-समय पर इसे निकालते रहेंगे। ”
धर्मबुद्धि को भी अपने मित्र की यह सलाह अच्छी लगी । दोनों में अपने गाँव के समीप वाले वन में एक पेड़ के नीचे अपने धन का एक बड़ा हिस्सा गाड़ दिया ।
फिर दोनों पहुंचे अपने-अपने घर । थोड़े दिनों बाद पापबुद्धि को एक उपाय सूझी और वो वन में जाकर सारा धन निकाल कर अपने पास ले आया । अगले दिन पौ फटते ही वह पहुंचा अपने मित्र धर्मबुद्धि के पास और उससे कहा – “ मित्र मुझे थोड़े धन की आवश्यकता आन पड़ी है । चलो चल कर हम थोड़ा धन निकाल लेते हैं । ”
दोनों चल पड़े वन में उस निर्धारित स्थान की ओर । दोनों ने जैसे ही नियत स्थान पर खुदाई की वहाँ केवल वो बर्तन थे, जिसमें उन्होंने धन रख कर उसे मिट्टी के नीचे छुपा दिया था , उसमें धन कहीं नहीं था । इसी बीच पापबुद्धि जोर- जोर से अपना सर पीट पीट कर, धर्मबुद्धि पर धन चुराने का आरोप लगाते हुए रोने लगा ।
वहाँ से दोनों पहुंचे अपने गांव के धर्माधिकारी के पास और उन्हें सारा वृतांत सुनाया । पाप बुद्धि ने वन देवता को साक्षी ले कर निर्णय सुनाने को कहा ।
ग्राम अदालत और धर्माधिकारी इस बात पर राजी हो गए कि वन देवता की गवाही के आधार पर ही कल निर्णय लिया जाएगा।
पाप बुद्धि ने अपने पिता को उस पेड़ की खोखले जड़ में बैठ कर वन देवता के गवाही के समय धर्मबुद्धि पर सारा दोष मढ़ देने के लिए राजी कर लिया ।
अगले दिन निर्धारित समय पर सभी लोग धर्माधिकारी के साथ निर्धारित स्थान पर पहुंचे । धर्माधिकारी ने ऊंचे स्वर में पूछा – “ हे वन देवता इस धन की चोरी किसने की है, इसके साक्षी आप ही हैं । कृपया बताइये कि धन किसने चुराया है? ”
तभी वृक्ष की कोटर में छिपा पापबुद्धि का पिता बोल उठा – “ इस धन को धर्म बुद्धि ने ही चुराया है वही चोर है । ”
ग्राम के सभी पंच परमेश्वर और धर्माधिकारी को इस बात से थोड़ा आश्चर्य हआ । वे अपने ग्रंथ में देखने लगे जिसके आधार पर निर्णय दिया जा सके ।
जब तक ये लोग कुछ निर्णय सुनाते, उससे पहले धर्मबुद्धि ने उस वृक्ष में आग लगा दी । थोड़ी ही देर में आग की लपटों में झुलसता हुआ पाप बुद्धि का पिता बाहर आ गया और सारी बाते धर्माधिकारी को बता दी ।
धर्माधिकारी सहित गाँव के सभी लोग इस बात से बहुत क्रोधित हुए और उन्होने पापबुद्धि द्वारा चुराए गए धन तो धर्मबुद्धि को दिलाया ही । उन्होने धर्मबुद्धि को मित्र, मानव और अपने गाँव के नाम पर कलंक मानते हुए गाँव से बाहर निकालने की कठोर सजा सुनाई ।
सीख :- कहानी की सीख यही है कि जीवन में धन ही सब कुछ नहीं है । धन के लिए हमें आत्मीय सम्बन्धों की बलि नहीं देना चाहिए ।
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