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सुखी जीवन के लिए तुलसीदास जी के सीख भरे दोहे-अर्थ सहित

Written by-VicharKranti Editorial Team

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Tulsidas ke Dohe:-गोस्वामी तुलसीदास जी भारतीय संस्कृति में भक्ति काल के महान कवियों में से एक हैं । तुलसीदास जी ने रामायण सहित अन्य ग्रंथों की भी रचना की है। रामायण को सरल जनभाषा में लिखकर, घर-घर में इसकी पुनर्स्थापना के कारण गोस्वामी तुलसीदास जी को भगवान बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है।

एक श्रुत कथा के अनुसार तुलसीदास जी को अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति अत्यंत प्रेम था । एक बार घनघोर बारिश और भयंकर तूफान के बीच वह अपनी पत्नी से मिलने हेतु एक अंधेरी रात में ससुराल पहुंच गए। जिस पर उनकी पत्नी ने उन्हें कुछ भला बुरा कहा:-

(“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेक जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ॥”)

यहीं से उनके जीवन में वैराग्य जागृत हुआ । इसके बाद संन्यास लेकर उन्होंने रामचरितमानस सहित अन्य ग्रंथों की रचना की। आइए जानते हैं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित कुछ दोहों(tulsidas ke dohe)को अर्थ सहित और कोशिश करतें हैं इनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतरने का ।

तुसलीदास जी के दोहे

-1-

तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर ।
बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ॥


अर्थ:– इस दोहे में गोस्वामीजी शब्द और संवाद के महत्व को रेखांकित कर रहे हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -कि मीठे वचन से सर्वत्र सब ओर प्रसन्नता और खुशी फैलती है । सुखकारी भावनाओं का प्रसार होता है । दूसरों को वश में करने का भी एकमात्र मंत्र मधुर वचन ही हैं । अतः मानव मात्र को कठोर वचन का परित्याग करके मधुरभाषी बनना चाहिए ।

-2-

मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ॥


अर्थ:तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया( नेतृत्वकर्ता ) को मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सभी अंगों का पालन-पोषण करता है । अर्थात जो व्यक्ति कहीं भी किसी समूह का नेतृत्व कर रहा है उसको चाहिए कि उसके सभी सहचरों का अनुकूल पालन पोषण हो इसकी भी वह चिंता करें। यही गुण व्यक्ति को व्यक्तित्व में रूपांतरित कर देती है ।

-3-


सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥

अर्थ:– गोस्वामी तुलसीदास जी का कहना है कि मंत्री वैद्य और गुरु यदि भय के कारण, डर के कारण अप्रिय परन्तु हितकारी वचन नहीं कह कर क्रमशः राजा , रोगी और शिष्य से प्रिय वाक्य कहने को मजबूर हों तो इससे शीघ्र ही इन तीनों का नाश तय है। अतः एक समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह अप्रिय हितकारी वचनों को सुनने का भी धैर्य रखे ।

तुलसीदास जी के दोहे- Tulsidas ke Dohe


4-

आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ॥

अर्थ:- जिस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हों, जहाँ लोगों की आँखों में आपके लिए स्नेह ना हो, वहाँ कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ स्वर्ण मुद्राओं की बारिश ही क्यों न हो रही हो…मेरी समझ में स्वांतःसुखाय जीवन जीने के लिए ये बड़ी ही अहम सीख है ।

-5-

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ॥

अर्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं, किसी विपत्ति यानि जीवन की किसी भी बड़ी परेशानी के समय व्यक्ति को उसके यह सात गुण ही बचातें हैं । ये सात गुण हैं- व्यक्ति की विद्या या ज्ञान , व्यक्ति की विनम्रता, व्यक्ति की बुद्धि, भीतर का साहस(आत्मबल) , अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और राम अर्थात ईश्वर में विश्वास।

-6-

तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग ।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग ॥

अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में भांति-भांति के अर्थात विभिन्न व्यवहार स्वभाव और प्रभाव वाले लोग रहते हैं। इस संसार में सुख पूर्वक जीने के लिए हमें सबसे हंस बोल कर अच्छा व्यवहार करते हुए जीवन जीना चाहिए , संसार सागर को पार करना चाहिए । ऐसा करने से जीवन जीना सरल और सुगम हो जाता है ।

-7-

काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान ॥

अर्थ:– तुलसीदास जी कहते हैं कि एक पंडित (विद्वान) व्यक्ति भी यदि कामवासना से ग्रसित हो,अहंकार में चूर रहता हो अर्थात अहंकारी हो और उसके मन में सांसारिक चीजों के प्रति घोर लालसा हो, लिप्सा हो, तो वह विद्वान व्यक्ति भी मूर्ख के समान ही है।

गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहे-Tulsidas ke Dohe

-8-

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी।
सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि ॥

अर्थ:-अपने हितकारी स्वामी और गुरु की सीख को ठुकरा कर जो इनका सम्मान नहीं करता है। समय बीत जाने के पश्चात वह ग्लानि से भर जाता है तथा उसका अहित होना तय ही है।

-9-

‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ ॥

अर्थ:- दूसरों की अपकीर्ति अर्थात निंदा करके उनको नीचा दिखा कर स्वयं को प्रतिष्ठित करने का विचार मूर्खता नितांत मूर्खतापूर्ण है। क्योंकि दूसरों की निंदा करने वाले व्यक्ति के मुंह में एक दिन ऐसी कालिख लगती है जिसे किसी भी प्रकार से धोया नहीं जा सकता । जिससे छुटकारा पाना असंभव हो जाएगा।


10-

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तुलसी तृण जलकूल कौ निर्बल निपट निकाज ।
कै राखै कै संग चलै बांह गहे की लाज ॥

अर्थ:– तुलसी दास जी कहते हैं कि नदी के किनारे पर उगने वाली घास कितना निर्बल और बिलकुल ही काम में न आने योग्य होती है, परन्तु यदि कोई डूबता हुआ व्यक्ति संकटग्रस्त प्राणी उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है। पकड़ लेता है , तो वह निर्बल घास भी उसे बचाने का यथासंभव प्रयत्न करती है । अंत में या तो उसकी रक्षा कर लेती है या टूट कर उसके साथ ही चल देती है। ….सच्ची मित्रता भी ऐसी ही, संकट के समय में साथ देने वाली होनी चाहिए।

मित्रता पर तुलसीदास के दोहे-tulsidas ke dohe


-11-

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि विलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरू समाना ॥

अर्थ:- इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी मित्रता के विषय में कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने मित्र के दुख से दुखी नहीं होता ऐसे व्यक्तियों को देखने से भी पाप लगता है।अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण कण सदॄश दुख को सुमेरू पर्वत के समान जानने वाला ही सच्ची मित्रता का अधिकारी है ।

-12-

जिन्ह कें अति मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा ॥

अर्थ:– गोस्वामी जी कहते हैं -एक सच्चा मित्र अपने मित्र को कुपथ अर्थात गलत मार्ग पर चलने से रोक कर अच्छे रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है । एक सच्चा मित्र अपने मित्र के अवगुणों को छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है । जिनके स्वभाव में इस प्रकार की सहज बुद्धि न हो, वे मूर्ख केवल हठात ही किसी से मित्रता करते हैं।

-13-

देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
विपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥

अर्थ:– गोस्वामी तुलसीदास जी एक सच्चे मित्र के बारे में बताते हुए कहते हैं कि सच्चा मित्र वह है जो कुछ लेने देने में अपने मन में किसी प्रकार की शंका नहीं रखता हो, तथा संकट की घड़ी में भी अपनी सहज बुद्धि और बल से सदैव अपने मित्र का हित करता हो । श्रुतिओं के अनुसार विपत्ति के समय में भी अपने मित्र पर स्नेह रखने वाला ही सही मायनों में मित्र कहलाने योग्य है।

तुलसीदास जी के दोहे -Tulsi Das ji ke Dohe

-14-

उमा राम सम हित जग माहीं । गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥

अर्थ:– यह दोहा रामायण से ली गई है(भगवान शिव बाबा भोलेनाथ माता पार्वती को भगवान श्री राम की महिमा का अनुश्रवण करवा रहे हैं।) इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी ने सांसारिक संबंधों के बारे में एक बहुत ही गूढ़ बात कही है कि इस संसार में जितने भी संबंध है, सब में कहीं ना कहीं प्रेम अथवा प्रीति का एक कारक स्वार्थसिद्धि भी है। बिना किसी स्वार्थका संबंध तो केवल प्रभु राम से ही हो सकता है ।

-15-

आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥
जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥

अर्थ:– मित्रता के बारे में बताते हुए गोस्वामी जी आगे कहते हैं कि जो सामने उपस्थित होने पर मधुर वचन बोलता हो, चिकनी चुपड़ी बातें करता हो लेकिन पीठ पीछे अपने मित्र के प्रति नकारात्मक विचार रखता हो । इस प्रकार सांप के समान चित वाले कुमित्र का परित्याग करने में ही भलाई है ।

-16-

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी ॥

अर्थ:- धैर्य धर्म मित्र और पत्नी इन सब की परीक्षा व्यक्ति पर आये हुए संकट में ही होता है । अर्थात स्वयं तथा स्वयं के सामाजिक संबंधों की असलियत का पता जीवन की कठिन घड़ियों में ही चलता है।

-17-

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥

अर्थ:– जो हमेशा दूसरों से द्रोह अथवा झगड़ा करता हो पर’स्त्री और दूसरे के धन को प्राप्त करने की लालसा रखता हो तथा सदैव दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करता हो वह मनुष्य के शरीर में साक्षात राक्षस ही है।

गोस्वामी जी के अन्य दोहे-Tulsidas ji ke Dohe

-18-

बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
जलधि अगाध मौलि बह फेन। संतत धरनि धरत सिर रेनू

अर्थ:– बडे लोग अपने से छोटों पर प्रेम करते हैं। पहाड़ अपने सिर पर हमेशा तृण (घास) धारण करता है।अथाह सागर के मस्तक पर भी फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल के कण रहतें हैं । इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी महान बनने का रहस्य उद्घाटित करते हुए कह ईशारा कर रहें हैं कि संसार में बड़ा वही हो सकता है जिसमें अपने से छोटे तथा सामान्य व्यक्तियों को भी सम्मान देने की शक्ति और स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण मानने का धैर्य हो । एक वाक्य में महानता का सूत्र अपने से कमजोर और नीचे वाले व्यक्तियों को भी सम्मान देना ही है ।

-19-

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥

अर्थ:– इस दोहे में गोस्वामी जी ने सत्संग अर्थात सकारात्मक व्यक्तियों के संग के महत्व का प्रतिपादन यह कहते हुए किया है कि-संसार के सभी सुखों को भी अगर किसी तराजू के एक पलड़े पर रख दिया जाए, तो भी उसके बनिस्पत सत्संग से मिलने वाले लाभ कहीं अधिक ही होंगे। साथियों सच में व्यक्ति के जीवन में रूपांतरण का सबसे अहम कारक सत्संग अर्थात अच्छे लोगों का साथ होना ही है। जैसे व्यक्तियों के संसर्ग में हम रहेंगे हमारा चित भी क्रमश: उसी ओर झुकने लगेगा । हम भी वैसे ही जो जाएंगे ।

-20-

कोउ नृप होउ हमहिं का हानि ।
चेरी छाडि अब होब की रानी ॥

अर्थ:- कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है ? मैं अभी दासी हूँ तो नए राजा के बनने से दासी से क्या भला रानी बन जाऊंगी ! यह उस मानसिकता का परिचायक सूत्र वाक्य है जहाँ व्यक्ति को तब तक फर्क नहीं पड़ता जब तक आंच उस तक नहीं आ जाये । जब बात खुद पर आती है फिर विरोध करने की हिम्मत नहीं रह जाती..!

-21-

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

अर्थ:-कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है । कोई भी व्यक्ति किसी और की वजह से दुःख नहीं भोगता है बल्कि हरेक व्यक्ति के जीवन में आया हुआ संकट और दुःख उसके द्वारा किये गए कर्मों के फलाफल ही हैं ये परेशानियों से पार पाने का एक सूत्र वाक्य है । जब हम अपने जीवन की परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेदार नहीं मानेंगे, हमारे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं होगा ।

-22-

सेवक सुख चह मान भिखारी । व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी ॥

अर्थ:– सेवक सुख चाहता हो भिखारी सम्मान चाहता हो व्यसनी धन और ब्यभिचारी सदगति चाहता हो,लोभी यश की कामना करता हो तथा अभिमानी अर्थ धर्म काम और मोक्ष चाहते हो तो यह यह नितांत असंभव है ।इसकी सिद्धि असंभव को संभव करना ही है ।

-23-

लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल ।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल

अर्थ:– क्रोध सभी पापों का मूल है। क्रोध के वशीभूत मनुष्य कोई भी अनुचित काम कर लेता है। …और तो और क्रोधी मनुष्य संसार में स्वयं सहित सबका अहित ही करता है । अतः व्यक्ति को क्रोध नहीं करना चाहिए ।

तुसलीदास जी के दोहे हिंदी में-Tulsidas ke Dohe in Hindi

-24-

सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू ।
विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु

अर्थ:– वीर पुरुष युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करते हैं शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपनी महानता अपने प्रताप की डींगे हांकता हैं। अतः कथनी से करनी अधिक महत्वपूर्ण है। कार्यों की सिद्धि केवल बात करने से नहीं होती । अतः सफलता की कामना रखने वालों को लक्ष्यसिद्धि हेतु कार्य करना चाहिए ।

-25-

जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा
तदपि बिरोध मान जहं कोई।तहं गए कल्यान न होई ॥


अर्थ:- बिना किसी शंका संकोच के मित्र भगवान पिता और गुरू के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए परन्तु यदि इन जगहों पर जाने से अपमान होता हो हमारा विरोध होता हो तो ऐसे जगह नहीं जाना चाहिए । क्योकिं फिर यह कल्याणकारक नहीं रह जाता ..।

-26-

बंदउ गुरू पद पदुम परागा । सुरूचि सुवास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू ॥

अर्थ:- गुरू के पैरों की धूल सुन्दर सरस और सुगन्धित अनुराग रस से पूरित हैं गुरु की चरणवंदना संजीवनी औषधि का वह चूर्ण है जिसमें संसार के सभी समस्याओं का समाधान है । मैं उस चरण कमल को प्रणाम करता हूँ उसकी वंदना करता हूँ।

(भारत की सांस्कृतिक परंपरा (जो ऋषि परंपरा रही है,)में सभी गुरुओं ने सभी विद्वानों ने गुरु की महिमा का लगातार महिमामंडन किया है तुलसीदास जी ने भी इस दोहे के माध्यम से गुरु कृपा के महत्व को अनुमोदित करते हुए गुरु पद की सेवा को परम सुखकारी मान रहें हैं ।)


-27-

बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सत संगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

अर्थ:-बिना सत्संगति किये व्यक्ति विवेकवान नहीं हो सकता , और भगवान की इच्छा से ही अच्छे लोगों से हमें सत्संग सुलभ होता है । सत्संग ही जीवन और जगत में सभी मंगल और शुभ का मूल है । संसार की सभी सिद्धियों के लिए सत्संगति अत्यंत आवश्यक है । अतः सभी सफलता के अनुगामी व्यक्तियों को सत्संगति को अपने जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिए ।

-28-

सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं, दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी, छाड़ि सोच सकल हितकारी ॥

अर्थ:- नासमझ लोग सुख की घड़ी में अत्यंत खुशी हो जाते हैं और दुख की घड़ी में रोने लगते हैं जबकि धैर्यवान व्यक्ति इन दोनों ही स्थितियों में अपने मन को सम भाव में रखते हैं। स्थिति कैसी भी हो मनुष्य को अपने विवेक का अनुसरण करके धैर्य पूर्वक अपने को सम्यक भाव में संतुलित रखना चाहिए ।

-29-

तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान ॥

अर्थ:-सुंदरता, सद्गुण, प्रतिष्ठा, धन, और धर्मभाव से रहित होकर भी यदि कोई मनुष्य अभिमान में जीता है, तो ऐसे मनुष्य का जीवन ही बिडम्बना है । ऐसे मनुष्यों की गति अच्छी नहीं होने वाली है ।

-30-

बिना तेज के परुष की अवशि अवज्ञा होय।
आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय ॥

अर्थ:-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि तेजहीन पुरुष की अवज्ञा अवश्य ही होती है । तेजहीन पुरुष की बातों की अवमानना उसी प्रकार होती जैसे कि आग को तो कोई छूना नहीं चाहता लेकिन बुझी हुई आग को कोई भी स्पर्श कर लेता है ।

इसलिए अपने अंदर स्व-कल्याण और जगत कल्याण की भावना की ज्वाला प्रज्वलित करते रहिए लगातार इस कार्य की सिद्धि के लिए प्रयास करते रहिए ।

रामायण से संबंधित प्रश्न (FAQ)

तुलसीदास जी ने कितने दोहे लिखे?

तुलसीदास जी ने कितने दोहे लिखे इसका ठीक-ठीक अनुमान तो नहीं लगाया जा सकता लेकिन उनकी पुस्तक है दोहावली इसमें लगभग 573 दोहे हैं ।

तुलसीदास जी के लिए उनके राम कैसे हैं?

तुलसीदास जी का जीवन ही राममय था । उन्होंने प्रभु श्री राम की जीवन के विभिन्न भागों का विषद और लोमहर्षक वर्णन किया है तथा अपने महान ग्रंथ रामचरितमानस के द्वारा हम सांसारिक लोगों को भी अपना जीवन जीने के लिए उचित कार्य करने की प्रेरणा दी है ।
तुलसीदास जी के चित बुद्धि राग और कल्पना सब पर प्रभु श्री राम का स्पष्ट प्रभाव है तभी तो वह कहते हैं उमा राम सम हित जग माहीं .. वह भगवान श्रीराम को अत्यंत प्रिय, परम कृपालु, मर्यादा स्वरूप, एवं जगत-पिता के रूप में देखते हैं ।

रामायण में कुल कितने कांड और कितनी चौपाइयां हैं?

एक अनुमान के मुताबिक रामायण में कुल 7 कांड हैं और लगभग 4608 चौपाइयां हैं । इसके अतिरिक्त 86 छंद लगभग 200 से अधिक सोरठा और 1074 दोहे हैं।

रामायण का पहला कांड कौन सा है?

रामायण का पहला कांड बालकांड है जिसमें भगवान श्री राम के जन्म और उनकी बाल लीलाओं का वर्णन है ।

सबसे प्रमाणिक रामायण कौन सी मानी जाती है?

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण को सबसे प्रमाणिक रामायण माना जाता है ,उसके बाद लिखे गए सभी रामायण वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा लेते हुए ही लिखी गई है ।

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