क्रोध पर संस्कृत श्लोक से पहले क्रोध पर कुछ बातें – क्रोध प्रायः तब होता है जब चीजें हमारे हिसाब से नहीं होती । सामान्य तौर पर क्रोध को अहंकार की प्रतीति ही कही जा है । क्रोध एक प्रकार से अपनी उपस्थिति को दर्ज करने का एक तरीका है । क्रोध मनुष्य का एक ऐसा भाव है, जिसके करने या होने पर हृदय की गति तेज हो जाती है और रक्तचाप बढ़ जाता है।
क्रोध आसक्ति एवं इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाने के कारण उत्पन्न हताशा और निराश का ही एक रूप है । हमारे द्वारा की गई किसी भी कामना या इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाना ही गहरे अर्थों में क्रोध के होने का मूल कारण है।
क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति कुछ भी कर जाता है। क्रोध की स्थिति में सही और गलत का बोध नहीं रह जाता अतएव हमें क्रोध करने से बचना चाहिए अगर बच नहीं सकते तो क्रोध की स्थिति में कोई निर्णय तो नहीं ही लेनी चाहिए ।
इस लेख में क्रोध पर कहे गए संस्कृत के कुछ श्लोक एवं उनके भावार्थ तो आइए जानते हैं क्रोध पर संस्कृत में श्लोक में…
क्रोध पर संस्कृत श्लोक
श्लोक. 1
क्रोधो वैवस्वतो राजा
तॄष्णा वैतरणी नदी ।
विद्या कामदुघा धेनु:
सन्तोषो नन्दनं वनम् ।।
भावार्थ: – इस श्लोक का अर्थ यह है कि क्रोध यमलोक के राजा अर्थात यमराज की तरह होता है और क्रोध में भयंकर वैतरणी नदी के समान तृष्णा होती है। जबकि विद्या माता कामधेनु के समान फल देने वाली होती है और संतोष आनंद वन के समान होता है । अब यह हम मनुष्यों पर निर्भर है कि हम किसे चुनते हैं क्रोध को अथवा विद्या व संतोष को ।
श्लोक 2.
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।
श्लोक 3.
क्रोधमूलो मनस्तापः
क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधः
तस्मात्क्रोधं परित्यज।।
भावार्थ:- इस श्लोक के अनुसार व्यक्ति का क्रोध ही उसके दुख का मनुष्य के मनस्ताप का सबसे बड़ा कारण होता है। संसार के बंधन का कारण भी क्रोध ही है, क्रोध से ही सभी पुण्य व धर्म का क्षय होता है , इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति को क्रोध का विचारपूर्वक त्याग करना चाहिए।
श्लोक 4.
त्रिविधम् नरकस्येदं द्वारं नाशनाशनमात्मनः
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
भावार्थ:- इस श्लोक के माध्यम से बताया जा रहा है कि तीन विधियों व तरीकों से मनुष्य नरक अथवा अधोगति को प्राप्त होता है । इन 3 विधियों के द्वारा ही व्यक्ति के लिए अहित व अनिष्ट का द्वार खुलता है । यह तीन गुण हैं – काम, क्रोध, और लोभ। इसीलिए इस श्लोक के अनुसार हम सब को इन तीनों अवगुणों को यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिए।
ये 3 अवगुण नरक के द्वार इसलिए कहे गए हैं क्योंकि काम के वश में व्यक्ति अच्छे-बुरे का अंतर भूल जाता है । क्रोध की धारा में बह कर उचित अनुचित एवं संयम को खो बैठता है । लोभ में व्यक्ति उस संतोष को तिलांजलि दे बैठता है जो एक मनुष्य के जीवन में आनंद का वास्तविक अर्थों में प्रवाह करता है ।
इन 3 के रहते मनुष्य जीवन में सुखी नहीं हो सकता ऐसे में इन का संयमपूर्वक त्याग करना ही उचित है ।
श्लोक 5.
क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्।।
भावार्थ:- इस श्लोक के अनुसार इस संसार में मनुष्य के सारे संकटों अथवा विपत्तियों का मूल कारण- क्रोध ही है। क्रोध में व्यक्ति अपना मूल अर्थ खो देता है। क्रोध धर्म का नाश करने वाला है। इसीलिए क्रोध को त्याग देना चाहिए । इस श्लोक के अनुसार क्रोध को त्यागना ही मनुष्य के लिए सर्वोत्तम है।
श्लोक 6.
आकृष्टस्ताडितः क्रुद्धः क्षमते यो बलियसा।
यश्च नित्यं जित क्रोधो विद्वानुत्तमः पुरूषः।।
भावार्थ:- इस श्लोक के अनुसार, एक बलवान व्यक्ति कभी क्रोध का सहारा नहीं लेता है। वह कभी क्रोध को प्राप्त नहीं होता है। क्रोध को त्यागकर शील प्राप्त करने वाला ही महान विद्वान कहलाता है। इस श्लोक की पहली पंक्ति में बताया गया है कि वह व्यक्ति वास्तव में बलवान होता है वह कभी दूसरों के अनुचित व्यवहार व संभाषण पर भी क्रोधित नहीं होता हो एवं अपने ऊपर संयम रखते हो।
एक विद्वान व्यक्ति अनुचित कर्म को देखकर उस पर क्रोध करने से बचता है। वह इसके लिए क्षमा का मार्ग चुनता है। इस श्लोक के अनुसार दूसरों को क्षमा करना ही एक विद्वान और बलवान व्यक्ति को महान बनाता है।
श्लोक 7.
मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।
भावार्थ:- इस श्लोक में हमारे विद्वान ऋषियों द्वारा मूर्ख के पांच लक्षण बताए गए हैं। इसके अनुसार एक मूर्ख व्यक्ति अभिमान से भरा हुआ , गलत तरीके से बात करने वाला , क्रोधी , जिद्द करके अपने तर्कों / कुतर्कों को भी मनवाने वाला और दूसरों के विचारों के प्रति या अन्य लोगों के प्रति अनादर का भाव रखने वाला होता है । सम्मान की कमी जैसे लक्षणों वाला होता है। इस लक्षणों से युक्त व्यक्ति मूर्ख ही कहलाता है।
श्लोक 8.
षड्दोषाः पुरुषेणेह
हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा, तन्द्रा, भयं, क्रोधो
आलस्यं, दीर्घसूत्रता।।
भावार्थ:- इस श्लोक में कुछ ऐसे दोषों के विषय में बताया गया है। जीवन में सुख पाने के लिए जिनका त्याग करना अनिवार्य शर्त है ।यदि एक व्यक्ति वास्तव में जीवन में सुख की इच्छा इच्छा रखता है तो उसे नींद, तन्द्रा (उंघना ), डर, क्रोध ,आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों को भी विलंब से करने की आदत )- इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए।
इन दोषों से युक्त होकर सुखी जीवन की कल्पना एक कोरी दिवास्वप्न ही साबित होगी ।
श्लोक 9.
क्रोध – वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित्।।
भावार्थ:- इस श्लोक में क्रोध को अत्यंत भयावह प्रवृति बताया गया है। इसके अनुसार क्रोध में व्यक्ति को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता है । क्रोध के आगोश में मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी कर सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं रह जाता है ।
क्रोध में व्यक्ति को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इस बात का भी आंकलन करना असम्भव हो जाता है। ये सारे श्लोक क्रोध से खुद को बचाने की ही प्रेरणा से भरे पड़े हैं ।
श्लोक 10.
दयायातो विषयान्पुंसः संग्ङस्तेषुउपजायते
संग्ङासंग्ङात् संजायते कामः कामात्क्रोधो भिजायते।।
भावार्थ:- गीता जी के इस श्लोक में क्रोध के मूल कारण के बारे में बताया जा रहा है । इसमें विषय ( भौतिक सुख) एवं क्रोध के बीच के संबंध का उल्लेख है । इस श्लोक में कहा गया है कि जो मनुष्य जिस चीज का चिंतन करता है उसके के मन में उन्हीं चीजों का मोह उन चीजों के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो जाती है । इस विषय कामना की प्राप्ति में पड़े विघ्न के कारण ही क्रोध उत्पन्न होता है। अतएव क्रोध का मूल कारण विषयों का चिंतन है एवं उसके प्राप्ति में उत्पन्न बाधा है।
निष्कर्ष
इस आर्टिकल के जरिए आपको क्रोध के ऊपर लिखे गए संस्कृत श्लोकों को पूरे भावार्थ के साथ बताने का प्रयास किया । आपने इन सभी श्लोकों के में देखा कि किस तरह से क्रोध को अत्यंत कष्ट प्रदान करने वाला एवं अनिष्ट का कारक , नरक का द्वार , जीवन में सुखों को छीन लेने वाला एवं मानव जीवन में अधोगति का कारण बताया है ।
इसके विपरीत क्रोध न करने वाला व क्रोध पर नियंत्रण कर लेने वाले व्यक्ति को वास्तविक अर्थों में विद्वान , विवेकशील एवम ज्ञानवान बताया गया है ।
साथियों क्रोध में निश्चित ही हम अपना संयम खो देते हैं एवं हमें अच्छे-बुरे एवं उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रह पाता । क्रोध बहुत गूढ अर्थों में जीवन में उत्पन्न समस्याओं में अहम किरदार निभाता है । अतः आपसे नम्र निवेदन है कि आप अपने जीवन से क्रोध को दूर करिए एवं अपने जीवन को खुशियों से भरिए ।