kabir das ji ke dohe

कबीर दास जी के दोहे हिंदी अर्थ सहित

Written by-Khushboo

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कबीर दास जी प्रसिद्ध के दोहे- kabir das ji ke dohe

आगे के दोहों में कबीर मानव जीवन में गुरु का महत्व ,अपने पर आश्रित व्यक्ति के भरण पोषण की नैतिक जिम्मेदार , दान की महिमा एवं जीवन की क्षणभंगुरता आदि विषय में अपनी शिक्षाएं दे रहें हैं ।

75).

माला फेरत जुग गया , मिटा न मन का फेर ।
कर का मनका डरि दे ,मन का मनका फेर ॥

76).

तन थिर मन थिर,सुरति निरति थिर होय ।
कहैं कबीर उस पलक को ,कल्प न पावै कोय ॥

77).

बिना साँच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति ना सोय ।
पारस में परदा रहा , कस लोहा कंचन होय ॥

78).

गुरु शरणागत छाड़ि के, करे भरोसा और ।
सुख संपत्ति को कह चली, नहीं नरक में ठौर ॥

79).

अमृत पीवै ते जना, सतगुरु लागा कान ।
वस्तु अगोचर मिली गई, मन नहीं आवा आन ॥

80).

प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि कि सोय ।
उत्तम प्रीति सो जानिए ,सतगुरु से जो होय ॥

81).

कंचन दीया करन ने , द्रोपदी दीया चीर ।
जो दीया सो पाइया , ऐसे कहै कबीर ॥

82).

साधु शब्द समुंद्र है ,जामे रतन भराय ।
मंद भाग मुटठी भरें, कंकर हाथ लगाय ॥

83).

पानी मिलें न आपको ,औरन बकसत छीर ।
आयन मन निहचल नहीं, और बंधावत धीर ॥

84).

दया दया सब कोई कहैं , मर्म न जानै कोय ।
जात जीव जानै नहीं, दया कहाँ से होय ॥

Kabir Das ke Pad aur Dohe

85).

दाता दाता चलि गए रहि गए मक्खी चूस ।
दान – मान समुझे नहीं, लड़ने को मजबूत ॥

86).

मूली ध्यान गुरु रुप है, मूल पूजा गुरु पावं ।
मूल नाम गुरु वचन है ,मूल्य सत्य सतभाव ॥

87).

शब्द बिचारे पथ चलै ,ज्ञान गली दे पावं ।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कांदला छावं ॥

88).

सब धरती कागद करूं ,लिखनी सब वनराय ।
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय ॥

89).

कबीर शीतल जल नहीं , हिम ना शीतल होय ।
कबीर शीतल संत जन ,राम सनेही सोय ॥

90).

साधु सती और सूरमा, राखा रहें न ओट ।
माथा बाँधि पातक सों , नेजा घालै चोट ॥

91).

मांगन मरन समान है ,तोहि दई मैं सीख ।
कहें कबीर समुझाय के, मति कोई मांगे भीख ॥

92).

साधु कहावन कठिन है ज्यों खारें धार ।
डगमगायो गिर पड़े, निष्चल उतरे पार ॥

93).

साधु जन सब में रमें, दुख ना काहू देहि ।
अपने मत गाढा रहै, साधुन का मत येहि ॥

94).

सदा कृपालु दुख परिहरन, बैर भाव नहि दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, हिंसा रहित जु होय ॥

95).

आगा- पीछा दिल करै, सहजै मिलें न आय ।
सो बासी जमलोक का, बाँधा जमपुर जाय ॥

96).

दुःख लेने जावें नहीं ,आवै आचा बूच ।
सुख का पहरा होयगा, दुःख करेगा कूच ॥

97).

काया खेत किसान मन, पाप- पुन्न दो बीब ।
बोया लुने आपना, काया कसकै जीव ॥

98).

सुर नर मुनि सबको ठगे ,मनहि लिया औतार ।
जो कोई याते बचें, तीन लोक ते न्यार ॥

99).

तन की बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होय ।
तूँ आपा को डरी दे ,दया करे सब कोय ॥

100).

लिखा मिटे नहीं करम का , गुरु कर भज हरिनाम ।
सीधे मारग नित चले, दया- धर्म विसराम ॥

101).

यह मन हरि चरने चला, माया- मोह से छूट ।
बेहद माहीं घर किया , कल रहा सिर कूट ॥

102).

कुशल कुशल जो पूछता ,जग में रहा न कोय ।
जरा मुई ना भय मुआ , कुशल कहां ते होय ॥

103).

जो उगे सो अथवे, फुले सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढही पड़े, जामे सो मरि जाय ॥

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