आगे के दोहों में कबीर क्षण भंगुर जीवन तथा इसमें पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के विषय में अपनी बात कह रहें हैं । इसके अलावा जीवन में सत्संग और ज्ञान की महिमा एवं जीवन में उद्यम के महत्व को भी रेखांकित कर रहे हैं ।
48).
नन्हा कातो चित्त दे ,महंगे मोल बिकाय ।
ग्राहक राजा राम है ,और न नीरा जाय ॥
49).
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
को काहू का है नहीं ,देखा ठोंकी बजाय ॥
50).
जल में बसे कुमोदनी, चंदा बसे अकास ।
जो है जाका भवता ,सो ताहि के पास ॥
51.
सब वन तो चंदन नहीं , शूरा के दल नाहिं ।
सब समुद्र मोती नहीँ ,यों साधु जग माहिं ॥
52).
संत समागम परम सुख, जान अल्प सुख और।
मानसरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥
अर्थ : – इस दोहे के माध्यम से कबीर सत्संग की महिमा के बारे में बता रहे हैं । वो ज्ञानिजनों के बीच बिताए गए समय को ही जीवन का सबसे बड़ा सुख मान रहें हैं । इसके अतिरिक्त सभी सुखों को वे तुच्छ बता रहे हैं । सीधे और सरल शब्दों में कह रहे हैं कि -यदि हंस देखना है तो मानसरोवर जाना पड़ेगा बाकी बगुला तो जगह-जगह हैं ही ।
53).
जैसा ढूंढत मैं फिरूं, तैसा मिला न कोय ।
तत्वेता तिरगुन रहित ,निरगुन सों रत होय ॥
54).
कबीर हिर्दय कठोर के ,शब्द न लागै सार ।
सुधि -सुधि के हिरदै विधे, उपजे ज्ञान विचार ॥
55).
जग में युक्ति अनूप हैं , साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामे निपट अनूप हैं , सतगुरु लगा कान ॥
56).
जब तू आया जगत में ,लोग हँसे तू रोय ।
ऐसी करनी न करो , पीछे हँसे सब कोय ।।
57).
श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखे धीर ।
श्रम ते खोदत कूप ज्यों , थल में प्रगटे नीर ॥
58).
कैसा भी सामर्थय हो , बिन उद्यम दुख पाय ।
निकट असन बिन कर चले, कैसे मुख में जाय ॥
59).
कबीर समुझा कहत हैं ,पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥
60).
साँचे को साँचा मिले, अधिका बढ़े सनेह ।
झूठे को साँचा मिले तर दे टूटे नेह ॥
61).
साँच हुआ तो क्या हुआ, नाम न साँच जान ।
साँचा होय साँचा मिलै ,साँचे माँहि समान ॥
62).
कंचन केवल हरि भजन ,दूजा काँच कथीर ।
झूठाा आल जंजाल तजि, पकड़ा साँच कबीर ॥
63).
कहत- सुनत जग जात हैं ,विषय न सूझे काल ।
कहे कबीर सुन प्राणिया ,साहिब नाम सम्हाल ॥
64).
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्त ।
जैसे पर घर पहुना, रहे उठाए चित्त ॥
65).
आए हैं ते जायेँगे राजा रंक- फ़कीर ।
एक सिंहासन चढ़ी चले एक बँधे जंजीर ॥
66).
तू मति जाने बावरे, मेरा है सब कोय ।
प्राण पिंड सो बँधी रहा, सो नहि अपना होय ॥
Kabir ke Pad
67).
दीन गवांयो दुनी, संग दुनी ना चाली साथ ।
पाव कुल्हाड़ी मरिया , मूरख अपने हाथ ॥
68).
कालचक्र चक्की चले ,बहुत दिवस और रात ।
शगुन -अगुन दोय पाटला, तामें जीव पिसात ॥
69).
भय बिन भाव न उपजै, भय बिनु होय न प्रीति ।
जब हीरदे से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥
70).
दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करै, तो दुःख काहे को होय ॥
71).
तू- तू करता तू भया , तुझमे रहा समाय ।
तुझ माहीं मन मिली रहा ,अब कहूं अनत ना जाय ॥
72).
साँस साँस पर नाम ले, वृथा साँस मति खोय ।
न जाने इस साँस का ,आवन होय ना होय ॥
73).
कहा भरोसा देह का ,विनसि जाय छिन माँहि ।
साँस साँस सुमिरन करो ,और जतन कछु नांहि ॥
74).
जाकी पूंजी साँस है, छिन आवै छिन जाय ।
ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लो लाय ॥
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Nice Post, nice to read them.
विक्रम जी धन्यवाद!
Very Very good
अपने सुंदर कमेन्ट से हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद !
सितम गर्म जल से कभी, करिए मत स्नान।
घट जाता है आत्मबल, नैनन को नुकसान।।