kabir das ke dohe-कबीर दोहावली
kabir das ke dohe: कबीर दास भक्तिकालीन भारत के महान संतों में से एक थे .जिन्होंने अपने समय में समाज में व्याप्त बुराइयों पर लगातार कुठाराघात किया. कबीर ताउम्र पाखंड और अंधविश्वास पर चोट करते हुए सत्य एवं सदाचार पूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देते रहे.कबीर ने साखी सबद और रमैनी नाम से तीन पुस्तकों की रचना की .कबीर दास के दोहे सरल शब्दों में अत्यंत सारगर्भित एवं सामाजिक जीवन को ठीक से कैसे जिया जाय की शिक्षाओं से लबरेज हैं .कबीर दास का जीवन एक साधारण आदमी द्वारा महानता के शिखर को छूने की कहानी है . ये दोहे अनमोल हैं ! मुझे ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं है की एक-एक दोहों में आज के बड़े-बड़े प्रेरक वक्ताओं के अनेकों घंटे की सीख समाहित है.
कबीर के द्वारा कहे गए एक-एक दोहे अपने आप में एक ग्रन्थ से कम नहीं है.सरल सहज तथा समीचीन भाषा में आम लोगों तक मानव जीवन के मूल सत्यों को पहुंचाने का उनका अंदाज अद्वितीय रहा है . अतः शुरू में हमने अपने अध्ययन के हिसाब से कुछ प्रतीकात्मक दोहों (kabir das ke dohe)को आपके लिए प्रस्तुत किया है जो इस बात की प्रेरणा देतें हैं कि कठिन समय में कैसे सहज हो कर जिया जाय और दुरूह परिस्थितितयों में भी अथक परिश्रम,प्रेमपूर्ण व्यवहार और उम्मीद के सहारे लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाय. प्राणिमात्र से प्रेम का सन्देश ही कबीर के चिंतन की मूल अवधारणा रही है .
# दोहा
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ:-बोली एक अमोल है … इस दोहे(kabir das ke dohe)के माध्यम से कबीर कहना चाहते है कि वही बोली अनमोल है जिसे सोच समझ कर बोला जाय,उसके प्रतिफल और परिणाम की समीक्षा कर के .यह बुझ और जान कर की अगर वही शब्द कोई हमारे लिए कहे तो स्वयं को कैसा अनुभव होगा. अगर इन चीजों को ध्यान में रख कर हम बात करेंगे तो निश्चय ही वह बोली अनमोल ही होगी .
वही बात कि “कब कहाँ कैसे कोई बात कही जाती है ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है .“आरम्भ में प्रस्तुत है दो-चार दोहे फिर उसके आगे पढ़िए कबीर के दोहों का संकलन…
# दोहा
मन के हारे हार है,मन के जीते जीत है।
कहे कबीर गुरु पाइये,मन ही के प्रतीत।।
अर्थ:-हमारे साथ घटने वाली हर एक घटना, पहले सर्वप्रथम हमारे विचारों में हमारे मन में आकर लेती है और फिर वास्तविक धरातल पर घटित होती हैं .हमारे मन में जिस प्रकार का ब्लूप्रिंट बनता है उसी प्रकार से हमारे चिंतन और चरित्र की प्रकृति बदल जाती है. मन से हारे व्यक्ति को विजय प्राप्त करना मुश्किल है और सशक्त मनःशक्ति वाला व्यक्ति का कठिन परिस्थिति में भी हारना दुरूह . अतः मन ही वास्तव में हमारा गुरु है.
अर्थ II:-कबीर दास जी कहतें हैं हार और जीत मन की ही प्रतीति हैं . जय और पराजय विश्वास के ही दो रूप हैं. मन को जीतने वाले की विजय निश्चित है .तथा ईश्वर की प्राप्ति का भी मूल मंत्र भी मन का विश्वास ही है

# दोहा
कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढे वन माहि ।
ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं ।।
अर्थ :– इस दोहे कबीर कहना चाहते हैं इस पर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर निवास करता है उसे ढूंढने के लिए बाहर दर-दर भटक भटकने की जरूरत नहीं है.
हमारे पाठकों के लिए इसकी व्याख्या इस प्रकार से है प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर का ही एक अंग है हम सभी ईश्वर की संतानें हैं इसलिए हम सबको सफलता प्राप्ति के क्रम में प्राप्त क्षणिक पराजयों से हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं है
# दोहा
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ।।
अर्थ :-ऐसे लोग जो हमारी निंदा करतें हैं उनको क्रोध वश स्वयं से दूर नहीं रखना चाहिए बल्कि उनको अपने ही पास रखना चाहिए ताकि उनके द्वारा अपनी आलोचनाओं से सचेत होकर हम अपनी व्यक्तिगत दोषों को दूर कर सकें .वस्तुतः जो हमारा हित चाहने वाले होते हैं वही हमारी आलोचना हमारे सामने भी कर सकतें हैं . निंदा से बचने हेतु हमारे प्रयास हमें रूपांतरित कर देते हैं
# दोहा
ज्यों तिल माहीं तेल है, ज्यों चकमक में आगि ।
ऐसे घट- घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं ।।
अर्थ:-जैसे तिल में तेल तथा चकमक पत्थर में आग उसके भीतर सदैव विद्यमान रहता हैं उसी भांति परमात्मा इस सृष्टि के कण कण में मौजूद हैं विराजमान हैं . उन्हें बाहर बहुत ढूंढ़ने से वो नहीं मिलने वाले.बल्कि सच्चाई और नेकनीयती से अपने काम में लगे हुए व्यक्ति को ही वो मिलेंगे

# दोहा
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।
अर्थ:-धैर्य ही व्यक्ति के जीवन में प्राप्ति का मूल आधार है. अतः झटपट परिणाम प्राप्त करने की कोशिश को छोड़कर लक्ष्य का संधान करके व्यक्ति को अनवरत प्रयास करते रहना चाहिए क्योकि प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होता समय आने पर अवश्य फलित होता है.
अब आप आगे पढ़िए दोहों का पूर्ण संकलन जिसमें से केवल कुछ का हम अर्थ दे रहें हैं आने वाले दिनों में हम सभी दोहों(kabir das ke dohe) का अर्थ लिखने की कोशिश करेंगे. अगर आप को किसी दोहे का अर्थ समझने में कोई दिक्कत हो तो कृपया नीचे कमेंन्ट बॉक्स में अवश्य लिखे हम इसे शीघ्र अपडेट कर देंगे.
कबीर दास जी की प्रमुख दोहों का संकलन
1).
बुरा वंश कबीर, का उपजा पूत कमाल ।
हरि का सिमरन छोड़ के घर ले आया माल ।।
2).
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
इस दोहे की व्याख्या कई प्रकार से की जा सकती है लेकिन हमारा मुख्य उद्देश्य प्रेरणा के स्रोत को आप तक पहुंचाने का और प्रेरणा के स्त्रोत से हमारे पाठकों को जोड़ने का इसलिए हमारी व्याख्या इस दोहे के लिए कुछ इस प्रकार है-
कबीर शिक्षा को मानव जीवन का एक आवश्यक अंग मानते थे उनके मुताबिक शिक्षित होने में ही जीवन की सार्थकता को प्राप्त करना है इसके विपरीत जो कुछ भी है वह व्यर्थ है. साथ ही वो गुरु एवं ज्ञानीजनों का हर परिस्थिति में सम्मान करने को भी कहतें हैं चाहे उनकी सामाजिक स्थिति परिस्थिति कुछ भी क्यों न हो …
3).
जहां दया वहां धर्म है जहां लोभ तहां पाप ।
जहां क्रोध महाकाल है जहां छमा तहां आप ।।
4).
कबीर खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर ।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।।
5).
राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट।
अंत काल पछतायेगा जब प्राण जाएगा छूट।।
6).
सुखिया सब संसार है खाए और सोए ।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोए।।
7)
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।
अर्थ: इस दोहे के माध्यम से कबीर कहना चाहते हैं कि केवल नाम से बड़ा होना कोई बड़ा होना नहीं व्यक्ति अपने जीवन में अपने काम से बड़ा होता है ऐसी प्रभुताई का कोई मोल नही है जिससे किसी का भला ही न हो पाय
8).
राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय ।
कहे कबीरा दो नाम सुनी, भरम परौ मति कोय ।।
9).
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।

10).
एक दिन ऐसा होयगा , कोय काहू का नाहिं।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहि॥
11).
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप।
जहां क्षमा तहां धर्म है, जहां दया तहां आप।।
12).
जीना थोड़ा ही भला हरि का सुमिरन होय।
लाख बरस का जीवना लेखै धरे न कोय ॥
13).
वेद कुरान सब झूठ है, उसमें देखा पोल।
अनुभव की है बात कबीरा, घट-परदा देखा खोल।।
14).
अंबर बरसे धरती भीजै, यहु जानै सब कोय ।
धरती बरसे अंबर भीजै , बुझे बिरला कोई ॥
15).
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान।
कबीर मूरख पंडिता, दोनों एक समान।।
16).
जिनके नाम निशान है , तिन अटकावै कौन ।
पुरुष खजाना पाइया , मिटी गया आवा गौन॥
17).
कबीर यह मन मसखरा , कहुँ तो माने रोस ।
जा मारग साहिब मिले, तहाँ न चालें कोस ॥
18).
हिंदू मैं हूं नाही, मुसलमान भी नाही ।
पंचतत्व को पुतला, गैबी खेले माही ।।
19).
ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आगि ।
ऐसे घट- घट राम है, दुनिया देखे नाही ।।
20).
केवल सत्य विचारा, जिनका सहारा आहारा ।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, तरे सहित परिवारा।।
21).
झूठा सब संसार है, कोउ न अपना मीत ।
राम नाम को जाने ले, चलै सो भौजल जीत॥
पढ़िए महान चिंतक कबीर दास के प्रसिद्ध दोहों के संकलन को-Great collection of kabir das ke dohe in hindi
22).
माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

23).
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
24).
कबीर मुख सोई भला, जा मुख निकसे राम।
जा मुख राम न निकसे, ता का मुख किस काम।।
25).
ज्ञान दीप प्रकाश करि ,भीतर भवन जराय ।
तहाँ सुमिर गुरु नाम को , सहज समाधि लगाय॥
26).
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दंभ विचार।
उदर भरण के कारण, जन्म गवाएं सार ।।
27).
कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।
28).
लेना होय सो जल्दी ले, कही -सुनी मत मान ।
कही-सुनी जुग-जुग चली, आवागमन बँधान ॥
29).
गुरु आज्ञा मानी नहीं, चले अटपटी जाल चाल ।
लोक वेद दोनों गए आए सिर पर काल ।।
30).
ज्ञानी अभिमानी नहीं सब काहू सो हेत ।
सत्यवान परमारथी आदर भाव सहेत ।।
31).
बहता पानी निरमला, बंधा गंदा होय ।
साधु जन रमता भला दाग ना लागै कोय ॥
32).
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया- भक्ति विश्वास ।
गुरु सेवा ते पाइए, सद्गुरु चरण निवास ।।
33).
तन मन ताको दीजिए, जाको विषया नाहिं।
आप सब ही डारी के, राखे साहिब माहीं॥
34).
माला तिलक लगाई, के भक्ति आई हाथ ।
दाढ़ी -मूछ मुराई के, चले दुनी के साथ ।।
35).
आया प्रेम कहां गया देखा था सब कोय ।
छीन रोवें छीन में हँसे, सो तो प्रेम न होय ।।
36).
अधिक सनेही माछरी ,दूजा अलप सनेह ।
जब ही जलते बिछुरे , तब ही त्यागे देह ॥
37).
काल करे सो आज कर। आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।
38).
मौत विषारी बावरी, अचरज किया कौन ।
तन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन॥
39).
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागै पायँ ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ॥
सद्गुरु कबीर दास के दोहे-Sadguru kabir das ke dohe
40).
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ:-धैर्य ही व्यक्ति के जीवन में प्राप्ति का मूल आधार है. अतः झटपट परिणाम प्राप्त करने की कोशिश को छोड़कर लक्ष्य का संधान करके व्यक्ति को अनवरत प्रयास करते रहना चाहिए क्योकि प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होता समय आने पर मेहनत अवश्य फलित होता है.

41).
सुनिए संतो साधु मिली, कहहिं कबीर बुझाय ।
जही विधि गुरु सों प्रीति ह्वै कीजै सोई उपाय।।
42).
भेदी लिया साथ करि दीन्हा वस्तु लखाय ।
कोटी जन्म का पंथ था पल में पहुंचा जाए ।।
43).
ऐसा कोई ना मिला हमको दे उपदेश ।
भवसागर में डूबते कर गहि काढ़े केश ।।
44).
लागी- लागी क्या करै लागत रही लगार ।
लागी तबही जानिए निकसी जाय दुसार।।
45).
कबीर सबते हम बुरे हमते भल सब कोय ।
जिन ऐसा करि बूझिया मीत हमारा सोय ।।
46).
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि करै सब छार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार ।।
47).
मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि ।
मेरी पग पर का पैखड़ा , गल की फाँसी ।।
48).
नन्हा कातो चित्त दे ,महंगे मोल बिकाय ।
ग्राहक राजा राम है ,और न नीरा जाय ।।
49).
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
को काहू का है नहीं ,देखा ठोंकी बजाय ।।
50).
जल में बसे कुमोदनी, चंदा बसे अकास ।
जो है जाका भवता ,सो ताहि के पास ।।
51.
सब वन तो चंदन नहीं , शूरा के दल नाहिं ।
सब समुद्र मोती नहीँ ,यों साधु जग माहिं।।
52).
संत समागम परम सुख ,जान अल्प सुख और |
मानसरोवर हंस है , बगुला ठौरे ठौर||
53).
जैसा ढूँढत मैं फिरूँ, तैसा मिला न कोय |
तत्वेता तिरगुन रहित ,निरगुन सों रत होय ||
54).
कबीर हिर्दय कठोर के ,शब्द न लागै सार |
सुधि -सुधि के हिरदै विधे, उपजे ज्ञान विचार ||
55).
जग में युक्ति अनूप हैं , साधु संग गुरु ज्ञान |
तामे निपट अनूप हैं , सतगुरु लगा कान||
56).
जब तू आया जगत में ,लोग हँसे तू रोय ।
ऐसी करनी न करो , पीछे हँसे सब कोय ।।
57).
श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखे धीर |
श्रम ते खोदत कूप ज्यों , थल में प्रगटे नीर||
58).
कैसा भी सामर्थय हो , बिन उद्यम दुख पाय |
निकट असन बिन कर चले, कैसे मुख में जाय||
59).
कबीर समुझा कहत हैं ,पानी थाह बताय |
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय||
60).
साँचे को साँचा मिले, अधिका बढ़े सनेह|
झूठे को साँचा मिले तर दे टूटे नेह ||
61).
साँच हुआ तो क्या हुआ, नाम न साँच जान|
साँचा होय साँचा मिलै ,साँचे माँहि समान||
62).
कंचन केवल हरि भजन ,दूजा काँच कथीर|
झूठाा आल जंजाल तजि, पकड़ा साँच कबीर ||
63).
कहत- सुनत जग जात हैं ,विषय न सूझे काल |
कहे कबीर सुन प्राणिया ,साहिब नाम सम्हाल ||
64).
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्त|
जैसे पर घर पहुना, रहे उठाए चित्त ||
65).
आए हैं ते जायेँगे राजा रंक- फ़कीर |
एक सिंहासन चढ़ी चले एक बँधे जंजीर||
66).
तू मति जाने बावरे, मेरा है सब कोय |
प्राण पिंड सो बँधी रहा, सो नहि अपना होय ||
67).
दीन गवांयो दुनी, संग दुनी ना चाली साथ|
पाव कुल्हाड़ी मरिया , मूरख अपने हाथ ||
68).
कालचक्र चक्की चले ,बहुत दिवस और रात |
शगुन -अगुन दोय पाटला, तामें जीव पिसात ||
69).
भय बिन भाव न उपजै, भय बिनु होय न प्रीति |
जब हीरदे से भय गया, मिटी सकल रस रीति ||
70).
दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय |
जो सुख में सुमिरन करै, तो दुःख काहे को होय ||
71).
तू- तू करता तू भया , तुझमे रहा समाय |
तुझ माहीं मन मिली रहा ,अब कहूं अनत ना जाय ||
72).
साँस साँस पर नाम ले, वृथा साँस मति खोय |
न जाने इस साँस का ,आवन होय ना होय ||
73).
कहा भरोसा देह का ,विनसि जाय छिन माँहि |
साँस साँस सुमिरन करो ,और जतन कछु नांहि ||
74).
जाकी पूंजी साँस है, छिन आवै छिन जाय |
ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लो लाय ||
कबीर दास जी प्रसिद्ध के दोहे- kabir das ji ke dohe
75).
माला फेरत जुग गया , मिटा न मन का फेर |
कर का मनका डरि दे ,मन का मनका फेर ||
76).
तन थिर मन थिर,सुरति निरति थिर होय ।
कहैं कबीर उस पलक को ,कल्प न पावै कोय ।।
77).
बिना साँच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति ना सोय |
पारस में परदा रहा , कस लोहा कंचन होय ||
78).
गुरु शरणागत छाड़ि के, करे भरोसा और |
सुख संपत्ति को कह चली, नहीं नरक में ठौर ||
79).
अमृत पीवै ते जना, सतगुरु लागा कान |
वस्तु अगोचर मिली गई, मन नहीं आवा आन ||
80).
प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि कि सोय |
उत्तम प्रीति सो जानिए ,सतगुरु से जो होय ||
81).
कंचन दीया करन ने , द्रोपदी दीया चीर|
जो दीया सो पाइया , ऐसे कहै कबीर ||
82).
साधु शब्द समुंद्र है ,जामे रतन भराय |
मंद भाग मुटठी भरें, कंकर हाथ लगाय ||
83).
पानी मिलें न आपको ,औरन बकसत छीर |
आयन मन निहचल नहीं, और बंधावत धीर ||
84).
दया दया सब कोई कहैं , मर्म न जानै कोय |
जात जीव जानै नहीं, दया कहाँ से होय ||
85).
दाता दाता चलि गए रहि गए मक्खी चूस |
दान – मान समुझे नहीं, लड़ने को मजबूत ||
86).
मूली ध्यान गुरु रुप है, मूल पूजा गुरु पावं |
मूल नाम गुरु वचन है ,मूल्य सत्य सतभाव ||
87).
शब्द बिचारे पथ चलै ,ज्ञान गली दे पावं |
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कांदला छावं ||
88).
सब धरती कागद करूं ,लिखनी सब वनराय |
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय ||
89).
कबीर शीतल जल नहीं , हिम ना शीतल होय |
कबीर शीतल संत जन ,राम सनेही सोय ||
90).
साधु सती और सूरमा, राखा रहें न ओट |
माथा बाँधि पातक सों , नेजा घालै चोट ||
91).
मांगन मरन समान है ,तोहि दई मैं सीख |
कहें कबीर समुझाय के, मति कोई मांगे भीख ||
92).
साधु कहावन कठिन है ज्यों खारें धार |
डगमगायो गिर पड़े, निष्चल उतरे पार ||
93).
साधु जन सब में रमें, दुख ना काहू देहि |
अपने मत गाढा रहै, साधुन का मत येहि ||
94).
सदा कृपालु दुख परिहरन, बैर भाव नहि दोय |
छिमा ज्ञान सत भाखही, हिंसा रहित जु होय ||
95).
आगा- पीछा दिल करै, सहजै मिलें न आय |
सो बासी जमलोक का, बाँधा जमपुर जाय ||
96).
दुःख लेने जावें नहीं ,आवै आचा बूच |
सुख का पहरा होयगा, दुःख करेगा कूच ||
97).
काया खेत किसान मन, पाप- पुन्न दो बीब |
बोया लुने आपना, काया कसकै जीव ||
98).
सुर नर मुनि सबको ठगे ,मनहि लिया औतार |
जो कोई याते बचें, तीन लोक ते न्यार | |
99).
तन की बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होय |
तूँ आपा को डरी दे ,दया करे सब कोय ||
100).
लिखा मिटे नहीं करम का , गुरु कर भज हरिनाम |
सीधे मारग नित चले, दया- धर्म विसराम ||
101).
यह मन हरि चरने चला, माया- मोह से छूट |
बेहद माहीं घर किया , कल रहा सिर कूट ||
102).
कुशल कुशल जो पूछता ,जग में रहा न कोय |
जरा मुई ना भय मुआ , कुशल कहां ते होय ||
103).
जो उगे सो अथवे, फुले सो कुम्हिलाय |
जो चुने सो ढही पड़े, जामे सो मरि जाय ||
104).
माली आवत देखि के, कलया करे पुकार |
फूली -फूली चुनि लाई ,काल हमारी बार ||
105).
अति हठ मत करे बावरे, हठ से बात ना होय |
ज्यूँ – ज्यूँ भीजे कामरी, त्यूँ- त्यूँ भारी होय ||
कबीर दास जी के मार्मिक दोहे-kabir das ke inspirational dohe
106).
मान -अभिमान न कीजिए कहें कबीर पुकार |
जो सिर साधु ना नमें, तो सिर काटि उतार ||
107).
काम क्रोध तृष्णा तजे, तजे मान अपमान |
सद्गुरु दाया जाहि पर, जम सिर मरदे मान ||
108).
नाम जो रत्ती एक है ,पाप पाप जु रत्ती हजार |
अधि रत्ती घट संचरै , जारी करे सब छार ||
109).
राम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छान |
कंचन मंदिर जारी दे ,जहां न सद्गुरु ज्ञान ||
110).
राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर |
काया हाड़ी काठ की ,वह चढ़े बहोर ||
111).
राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर |
काया हाड़ी काठ की ,वह चढ़े बहोर ||
112).
माया – माया सब कहें, माया लखै न कोय |
जो मन से ना उतरे, माया कहिए सोय ||
113).
तन चालतां मन भी चलें, ताते मन को घेर |
तन मन दोऊ बसि करै, राई होय सुमेर ||
114).
कामी तो निरभय भया,करै न कहूँ संक |
इंद्री केरे बसि पड़ा, भुगते नरक निशंक ||
115).
पहले यह मन काग था, करता जीवन घात |
अब तो मन हंसा भया , मोती चुनी -चुनी खात ||
116).
सुमिरन की सुधि यौं करो ,जैसे कामी काम |
एक पलक बिसरै नहीं, निश दिन आठों जाम ||
117).
चिंता चित्त बिसारिये, फिर बुझिए नहिं आन |
इंद्री पसारा मेटीए, सहज मिलै भगवान ||
118).
सुमिरन सों मन लाइए जब लागै ,ज्ञानकुस दे सीस |
कहैं कबीर डोलै नहीं ,निस्चै बिस्वा बीस ||
119).
कागद केरी नाव री, पानी केरी गंग |
कहैं कबीर कैसे तीरे, पाँच कुसंगी संग ||
120).
जीना थोड़ा ही भला , हरि का सुमिरन होय|
लाख बरस का जीवना, लेखै धरै न कोय ||
121).
थोड़ा सुमिरन बहुत सुख ,जो करि जानै न कोय ।
हरदी लगै न फिटकरी ,चोखा ही रंग होय ।।
122).
आगे अँधा कूप में ,दूजा लिया बुलाय ।
दोनों डूबे बापुरे , निकसे कौन उपाय ।।
123).
जा गुरु को तो गम नहीं ,पाहन दिया बताय ।
सिष सोधे बिन सेइया ,पर न पहुंचा जाय ।।
124).
हिरदे ज्ञान न ऊपजै, मन परतीत न होय ।
ताको सद्गुरु कहा करे ,घनघसि कुल्हर न होय ।।
125).
नींद नाशनी मौत की, उठु कबीरा जाग ।
और रसायन छारीके,राम रसायन लग ।।
126).
गुरु नाम है गम्य का, सीष सिख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर,गुरु सीष नहिं कोय ।।
127).
स्वामी सेवक होय के,मन ही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझे नहीं ,रहियर मन के माय ।।
128).
गुरु भया नहिं सीस भया, हिरदे कपट न जाव ।
आलो पालो दुःख सहै , चहिढ़ पाथ की नाव ।।
129).
कबीर यह संसार है, जैसा सेमंल फूल ।
दिन दस के वयवहार में, झूठे रंग न फूल ।।
130).
काया कजरी बन अहै, मन कुंजर महमंत ।
अंकुस ज्ञान रतन है, फेरे साधु संत ।।
131).
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं काम ।
दोनों कबहु न मिलै , रवि रजनी इक ठाम ।।

132).
गुरु नारायण रूप है , गुरु ज्ञान को घाट ।
सद्गुरू बचन प्रताप सों मन के मिटे उचाट ।।
अर्थ:- इस दोहे के माध्यम से कबीर गुरु की महिमा का बखान कर रहें हैं वो कह रहें हैं कि गुरु ज्ञान का अथाह भंडार हैं और इस धरती साक्षात् भगवान का रूप भी हैं अतः गुरु की समीपता का अपना ही महत्व है वह अपने शिष्यों के के मन में उठ रहे ऊहापोहों का भी शमन अपनी सहज अभिव्यक्ति से कर देतें हैं.
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Good thoughts 👍
हिमांशु जी धन्यवाद !
very nice post
आपको कबीर दास जी के दोहे अच्छे लगे यह जानकार हमें बहुत प्रसन्नता हुई । सुंदर शब्दों से हमारा उत्साह बढ़ाने के लिए विचारक्रांति टीम की ओर से आपका धन्यवाद ! विचारक्रांति टीम से जुडने के लिए हमसे ईमेल पर संपर्क करें ।